Welcome To "AKASH-VANI"

Hi...

I am Akash Gautam.

Here are some of my poems...

Hope you would like it...

All i need is your appreciation,

Please post a comment out there, so that i can improve myself...





Pages

Thursday, April 8, 2010

'स्वप्न सभा'

आज बड़े लोगो कि 'स्वप्न सभा' आयोजित हुई,
हर प्रतिष्ठित गली इस वजह सुसज्जित हुई...

सूट-बूट, इत्र, गाडियों का वहाँ बोलबाला था,
हर शख्स का तन गोरा, किन्तु मन काला था...

सुसज्जित टेबलों पर गिलास टकरा रहे थे,
मदिरा पान कर लोगो के सर चकरा रहे थे,,,

बदकिस्मती से मुझे भी इस सभा का निमंत्रण मिला,
पाकर जिसे दिल तो मुरझाया किन्तु चेहरा खिला...

आखिर क्यों नहीं, अब तो मै भी अब धनवान हो गया हूँ,
पहले कुछ भी था, अब तो श्रीमान हो गया हूँ...

उन लोगो के साथ मुझे भी कालेपन में रंगना पड़ा,
व्यर्थ ही नींद त्याग कर सारी रात जगना पड़ा...

चारों ओर पैसो की गंध महक रही थी,
हर शख्स के मुख से लक्ष्मी चहक रही थी...

सब ओर रोशनी की सुन्दर काया का आभास सा था,
किन्तु दूर एक कोने में काला साया कुछ उदास सा था...

उस ओर जाने पर पता चला, शैतानियत मानवता से खेल रही थी,
उस ओर एक बूढी माँ, अपने काबिल बेटे की मार झेल रही थी...

वे 'साहब' उसे निर्ममता से मारते जा रहे थे,
और उनके चारों ओर मुस्कुराते शैतान पास आ रहे थे...

मेरे मन ने प्रश्न किया, क्या इनके मन में भावनाए है ?
अनंत से कही शायद उत्तर मिला, इनके पास तो मात्र धन कल्पनाये है..

मै समझ गया, इस स्वप्न सभा में धन ही सर्वोपरि है,
इन सभी की भावनाए तो बस मरी ही है...

मेरे कदम उस रोशनी से दूर जा रहे थे,
कुछ और नहीं, पर अँधेरे अवश्य पास आ रहे थे...

मन अजीब कश्मकश में घिरने लगा था,
विशाल समुद्र में मैं अकेला गिरने लगा था...

अब मैंने अमीरी का चोगा उतार दिया है,
अपने चेहरे की खुशी को मार दिया है...

नहीं, ऐसी नहीं हो सकती, 'स्वप्न सभा'  मेरी ,
उजाले का ढोंग करती, है वास्तव में अँधेरी...

अब मिट चली है उन शख्शों की प्रभा,
अपने वास्तविक रूप में आने लगी है, 'स्वप्न सभा'...

Friday, February 26, 2010

फलसफ़ा ज़िन्दगी का

दर्द का भी अपना एक अलग नशा है,
इसे पीकर ही असल ज़िन्दगी जीते हैं हम...

न डुबो इन खुशियों में इस कदर तुम,
कि दर्द का इक कतरा भी तेजाब सा लगे...

आँखों में ही इन्हें रखो,बाहर मत छलकने दो,
नहीं तो सारा गम सैलाब बन उमड़ पड़ेगा...

कृति,
आकाश गौतम "अनंत"

Thursday, February 25, 2010

प्रतिबिम्ब

हर किसी की ज़िन्दगी की अपनी अलग कहानी है,
कहीं अविकल बहता झरना तो कहीं ठहरा  हुआ पानी है...

कोई डूबा है धन दौलत के समंदर में,
किसी को मुश्किल दो रोटी जुटानी है,
कहीं चहुँ ओर खुशहाली का राज है,
तो किसी के राज में भरसक बेईमानी है...
कहीं...

कोई बंधा है, रिश्ते नातों के प्यार में,
कहीं सूना बुढापा, अकेली जवानी है,
मदहोश है सभी अपनी ज़िन्दगी के नशे में,
मगर कम्बख्त ये ज़िन्दगी भी एक दिन चली जानी है...
कहीं...

कोई खामोश है, अपना गम सीने में दबाए,
कहीं छलकता दर्द किसी की जुबानी है,
कठपुतलियाँ बन नाच रहें  है, वक़्त के आगे,
आखिर वक़्त ने भी करनी अपनी मनमानी है...
कहीं...

कृति,
आकाश गौतम "अनंत"